दो अजनबी और वो आवाज़ - 1 Pallavi Saxena द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दो अजनबी और वो आवाज़ - 1

दो अजनबी और वो आवाज़

जीवन में जब आपके किसी अपने की कोई परेशानी आपके सर चढ़कर बोलती है तो क्या होता है ? जाहीर सी बात है मन परेशान हो उठता है और दिलो दिमाग के बीच एक जंग सी छिडी होती है। दोनों में से कोई भी एक दूसरे का साथ नहीं देता। ऐसे हालात में आपके दिमाग में कुछ ऑर चल रहा होता है और आप का शरीर कुछ और कर रहा होता है (कुछ ऐसा जिसको करने के लिए आपको दिमाग की जरूरत नहीं होती) ठीक वैसा ही इस कहानी की नायिका के साथ भी हो रहा है। एक फोन कॉल के बाद वह किस तरह हड़बड़ी में अपने घर से निकलती है अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए लेकिन इस बीच चंद घंटों के सफर में उसकी बीटी ज़िंदगी उसके मन मस्तिष्क में आने आपको किस रहस्य मयी तरीके से दोहराती है जानने के लिए पढ़िये मेरी लिखी कहानी “दो अजनबी और वो आवाज़’’

भाग-1

उस रोज़ हर सुबह की ही तरह मैं उठकर अपने रोज़ मर्रा के काम निपटा रही थी कि तभी मेरे फोन की घंटी बजती है और दूसरी ओर से आने वाली आवाज़ केवल इतना कहती है। “मैडम आप जितना जल्दी हो सके यहाँ आ जाइये, मामला हमारे हाथ से निकलता जा रहा है”। मैं वह आवाज सुनते ही जान जाती हूँ कि यह फोन कहाँ से आया है। मैं बिना कुछ सोचे समझे फटा-फट तैयार होकर घर से निकल जाती हूँ। फोन कॉल ने मुझे परेशान कर दिया है। चिंता की लकीरें मेरे चेहरे पर साफ देखी जा सकती है। फिर भी मैं अतीत में गुम उसके विषय में सोचते सोचते बाज़ार के रास्ते से होती हुई बस स्टैंड की तरफ जा रही हूँ। सोच, मैं उस के विषय में रही हूँ। लेकिन मुझे ऐसा लग रहा है कि “दो अजनबी” आँखें मेरा पीछा कर रही है। मैं रुक कर यहाँ वहाँ देखती भी हूँ लेकिन मुझे कोई नज़र नहीं आता। पर घबराहट के मारे मेरी चाल तेज़ हो जाती है और मैं जल्दी-जल्दी चलना शुरू कर देती हूँ।

कुछ देर बाद फिर अपने अतीत में जाकर सोचने लगती हूँ। एक लड़का था अंजाना सा, शायद कुछ कुछ पहचाना सा। बचपन की यादों में कहीं गुम सा है एक चेहरा, जरा-जरा धुंधला सा...कौन हो तुम....? पूछने पर कहता है। मैं तो, तुम ही हूँ। देखो जरा झाँककर अपने मन के अंदर, अपने मन में, तुम्हें मैं ही नजर आऊँगा। उसकी यह बातें सुनकर मैं झट से यह कहकर मना कर देती हूँ कि नहीं नहीं, मैं तो अभी तुम्हें ठीक से जानती तक नहीं कि तुम कौन हो। कहते हुए मैं आगे बढ़ जाती हूँ। किन्तु उसकी यह बात जैसे मेरे अंदर कहीं घर कर जाती है। बारिश हो रही है, बहुत तेज बारिश....इतनी तेज बारिश की आमने सामने खड़े होकर भी किसी को एक दूजे की शक्ल भी ठीक से दिखायी ना दे। ऐसी बारिश में पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं है मुझ में, बस उसकी बात को अपने मन में लिए मैं चलती जा रही हूँ।

ना जाने क्यूँ ऐसा लगता है कि आज़माकर देखूँ उसकी बात को और कोशिश करने लगती हूँ मैं अपने अंदर झाँकने की, तब अपना ही मन मुझे गहरे काले सागर सा प्रतीत होने लगता है। सागर की वह गहराई जहां सूर्य की किरनें भी नहीं पहुँच पाती। कितना अंधेरा है यहाँ, कुछ दिखायी ही नहीं दे रहा है। सिर्फ अपनी ही आवाज गूंज रही है। यह कौन सा कोना है मेरे मन का....जहां इतना अंधेरा है और मुझे पता तक नहीं, अचानक से मेरा दम घुटने लगता है। चलते चलते सांस फूलने लगती है। मानो गहरे पानी में जैसे सांस लेना मुहाल हो जाता है। ठीक उसी तरह, तब मैं चलते-चलते रुक जाती हूँ। जरा देर अपने दिल को थाम एक खंबे को पकड़कर ठहर जाती हूँ। लेकिन यह तय नहीं कर पाती कि मैं कहाँ हूँ। बहुत कोशिश करती हूँ स्वयं को ढूँढने की (उस आवाज) को पहचाने की, कि आखिर कौन था वह जो मुझे मेरे मन का वो कोना दिखा गया। जिसके विषय में, मैं जानती तक ना थी।

लेकिन न जाने क्यूँ अतीत की गहराइयों से कोई आवाज नहीं आ रही है। ऐसा लग रहा है कि मैं किसी सूने जंगल में भटक रही हूँ। वहाँ भी बहुत अंधेरा है, पशु पक्षियों तक की कोई आवाज नहीं आ रही है। अगर ऐसे में कुछ सुनायी दे रहा है, तो वह केवल अपने पदचापों की आवाज के अतिरिक्त और कुछ नहीं। हाँ जब हवा चलती है, तो पेड़ों की सरसराहट भी दिल को कंपकंपा जाती है।

मैं बस चल रही हूँ कि पीछे से फिर एक बार आवाज आती है गुड़िया...गुड़िया...! मैं नहीं सुनती या शायद मैं सुनना ही नहीं चाहती। फिर एक आवाज आती है निशु और यह सुनते ही मैं रुक जाती हूँ। उसका चेहरा अब भी मेरे सामने धुंधला ही है, जिसे मैं किसी आइने की तरह साफ करके देख लेना चाहती हूँ कि वह जो कोई भी है बस एक बार मेरे सामने आ जाए। लेकिन बारिश इतनी तेज है कि लाख साफ करने और पानी से बचाने पर भी वह चेहरा मेरे सामने नहीं आता। सिर्फ और सिर्फ उसकी आवाज ही सुनायी देती है। आखिर कौन है यह ? इन नामों से आज तक मुझे किसी ने नहीं बुलाया। यह सोचकर मैं फिर एक बार पूछती हूँ उससे, कौन हो तुम ? तुम्हें मेरा नाम कैसे पता है ? धुंधले से आईने में मुसकुराकर वह गायब हो जाता है।

उसके गायब होते ही मैं सोच में पड़ जाती हूँ। आखिर वह कौन है...? जिसकी आवाज तो जानी पहचानी लगती है, मगर चेहरा साफ नहीं होता। ऐसा कैसे हो सकता है भला, जिसकी आवाज में इतनी कशिश है, उसके पुकारने पर भी मेरे मन के आईने में उसकी कोई छवि नहीं उतरती। आखिर कौन है वो, कौन हो सकता है...? ऐसे में हजारों सवालों से घिरी मैं, परेशान बदहवास सी अपने आप में उलझी बस चले जा रही हूँ। भूल चुकी हूँ मैं कि मैं किस काम के लिए घर से निकली थी। अब मुझे ना रास्तों का पता है, न मंजिल का, न कोई ठिकाना है। बस मैं चलती ही जा रही हूँ।

तेज बारिश में रात जैसे उसी जंगल की भांति गहरी काली होती चली जा रही है। न जाने ऐसा कौन सा तूफान आया है कि बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही है। यह मौसम की बारिश है या मेरे मन का तूफान, मैं यह समझने में असमर्थ हूँ। मैं बस चले जा रही हूँ, इस उम्मीद के साथ के कहीं तो खत्म होगी यह गहरी काली रात, यह गहरा घना जंगल। कभी तो सुबह होगी इस रात की, मेरी दशा इस वक्त कुछ ऐसी है जैसे मेले में गुम हो गए किसी बच्चे की होती है।

मैं बारिश में इस कदर भीग चुकी हूँ कि अब मुझे देखकर ऐसा लग रहा है मानो बारिश की सारी बूंदें मुझ में से ही टपक रही हैं। अत्यधिक भीग जाने के कारण मेरा बदन ठंड से काँप रहा है। मेरा मन हो रहा है कि काश कोई आकर मुझे थोड़ा सा सहारा दे दे। जब-जब यह विचार मेरे मन में आता है, तब-तब वो आवाज यह कहते हुए मेरे करीब आती जाती है। मैं हूँ ना, मेरे रहते तुम कभी खुद को अकेला महसूस मत करना। मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ। जब भी तुम्हें मेरी जरूरत पड़े बस एक बार याद कर लेना, मैं झट से तुम्हारे लिए हाजिर हो जाऊंगा। यह सुनकर मेरे मन को जितनी तसल्ली नहीं हुई थी, उससे कहीं ज्यादा मैं डर गयी थी। क्यूंकि वह बिना चेहरे वाली आवाज जैसे पीछा कर रही थी मेरा, जैसे वो कोई साया हो या फिर कोई भूत जो मेरा पीछा किए जा रहा है।

आखिर कौन है वो? मेरा दिल रह रहकर मुझसे यही सवाल कर रहा है। लेकिन मेरे पास कोई जवाब नहीं है इस सवाल का, फिर अचानक ही मेरे मन में यह विचार आया कि मेरा ही तो दिमाग खराब नहीं हो गया है कहीं...कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी यादों को यह किस्सा जो मेरे पीछे साया बनकर घूम रहा है, वह मेरे दिमाग के हिस्से से मिट गया हो। ऐसा होता है, दिमाग की किसी बीमारी में, मैंने पढ़ा था कहीं...? या सुना था किसी से, हो सकता है। फिल्म देखी हो कोई मगर यह क्या मुझे कुछ याद क्यूँ नहीं है। जब मुझे कुछ याद ही नहीं, तो फिर अभी यह सब क्यूं हो रहा है मेरे साथ उफ़्फ़.....यह कैसी पहेली है।

इसे समझ क्यूं नहीं पा रही हूँ मैं, कि फिर एक बार बारिश के पानी को चीरती हुई एक आवाज मेरे कानों में पड़ती है। गुड़िया....ओ गुड़िया....ऐसा लगता है जैसे उस आवाज ने छूआ है मुझे, उस आवाज की नजदीकियों से सिहर उठी थी मैं, तुम इतना क्यूं परेशान हो। देखो तुम तो मुझे अब तक याद हो। फिर तुमने मुझे क्यूँ भुला दिया। क्या बचपन के दिन जरा भी याद नहीं तुम्हें...? बचपन के दिन सुनकर थोड़ा चौंक उठी थी मैं, शायद थोड़ा परेशान भी हो उठी थी। आखिर कौन है यह जिससे मेरा बचपन का नाता है और मुझे कुछ याद ही नहीं।

ऐसा सोचकर एक बार फिर अपने अतीत में जाकर ढूँढना चाहती हूँ खुद को, कि कहीं कोई तो सिरा मिले मुझे मेरे उस अतीत का, उसे याद है और मुझे नहीं, फिर भला ऐसे कैसे हो सकता है। फिर एक विचार मेरे मन में आता है कि कहीं यह दो जन्मों की कोई कहानी तो नहीं जिसमें मैंने पिछले जन्म में किसी से कभी प्यार किया हो या दोस्ती की हो और फिर हम दोनों ने मरकर नया जन्म लिया हो। जिसमें वो कुछ नहीं भुला और मैं सब भूल गयी हूँ। जिसे वह याद दिलाने की लगातार कोशिश कर रहा है और एक मैं हूँ कि मुझे कुछ याद ही नहीं...उफ़्फ़...यह कैसी सजा है। भगवान मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। क्या यही सच है कि यह दो जन्मों की कोई कहानी है या फिर यह भी मेरा कोई फितूर ही है।

मैं सर पकड़कर बैठ जाती हूँ और रोने लगती हूँ कि फिर एक बार वही आवाज आती है। अरे तुम रो क्यूं रही हो। मैंने तुम्हें कितनी बार कहा है, मुझ से तुम्हारी आँखों में आँसू नहीं देखे जाते। उस रात भी यही हुआ था, मेरे द्रढ़ निर्णय को तुम्हारे इन्हीं आँसुओं ने पिघला दिया था। तुम्हें याद है क्या बंगालन.... मैं फिर उसका इशारा समझ नहीं पाती। शायद मैं बहुत परेशान हूँ इसलिए दिमाग पर बहुत ज़ोर डालने के बाद भी, न मुझे वो रात याद आ रही है, ना ही वो उसके सामने रोने वाला किस्सा, जिसकी वो बात कर रहा है। लाख याद करने के बाद भी मेरी आँखों में उसका वो चेहरा नहीं उतरा जिसकी मुझे तलाश है।

नहीं यह दो जन्मों की कहानी तो नहीं हो सकती। क्यूंकि लोग बंगालन तो मुझे इसी जन्म में समझते है। क्या पता सच में, मैं पिछले जन्म में वास्तव में बंगालान ही रही हूँ। नहीं....! यह मैं क्या सोच रही हूँ। पागल हो गयी हूँ मैं, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है। कौन हो तुम आखिर खुलकर सामने क्यूं नहीं आते।

मुझे इस तरह सताने और परेशान करने में बहुत मजा आ रहा है न तुम्हें, इसलिए तुम मेरे साथ ऐसा मज़ाक कर रहे हो है ना ...!

किन्तु तुम्हें क्या लगता है। तुम अपनी चाल में कामयाब हो गए। तो नहीं, जरा भी नहीं...देखो मैं एकदम ठीक हूँ। मैंने अपने आँसू पोंछते हुए और खुद को थोड़ा संभालते हुए कहा। कुछ नहीं हुआ है मुझे, तुम मुझे पागल बनाना चाहते हो न....? लेकिन मैं तुम्हारी यह मंशा कभी पूरी नहीं होने दूँगी। समझे तुम ? समझे के नहीं समझे....! यह बात मैंने अपनी ताकत लगाते हुए बोली। तो उस आवाज का जवाब आया, क्यूं अब क्या मुझे तुम्हें छेड़ने, तुम्हें सताने, परेशान करने का भी कोई अधिकार नहीं....? सब तो छीन लिया तुमने मुझसे, अब क्या यह सब भी छीन लेना चाहते हो। तुम्हें पता है न कि हमारा बीच क्या रिश्ता है, जब तुम्हें याद है तो मुझे क्यूँ कुछ याद नहीं है। यही तो बात है कि तुम्हें कुछ याद ही नहीं हैं।

मुझे आज तक तुम्हारे हाथ के पीछे का व निशान तक याद है। जो आज भी तुम्हारे हाथ पर कायम है। उसकी यह बात सुनते ही मैंने अपना हाथ पलटकर देखा। सच में मेरे दाहिने हाथ के पीछे वह निशान आज भी मेरे हाथ पर है। पता है मेरी ज़िंदगी में भी एक हादसा हुआ था जिसमें मेरी सारी याददाश्त चली गयी थी। सब कुछ धुंधला हो गया। लेकिन न जाने क्यूं मैं तुम्हारे हाथ का वो निशान आज तक नहीं भुला सका। यूं तो मेरी अन्य सभी यादें उस हादसे के बाद धुंधली पड़ गयी। लेकिन तुम्हारा चेहरा और तुम्हारे हाथ का वो निशान जाने क्यूं मुझे याद रहा। ऐसा क्यूँ हुआ यह मैं नहीं जानता। आज भी सोचता हूँ तो किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाता।

जानती हो शुरू-शुरू में जब हम किसी पारिवारिक उत्सव या फिर किसी शादी में मिला करते थे न, तब मुझे तुमसे बहुत डर लगता था। यह सोचकर कि कहीं तुम मुझसे रूठ न जाओ, कहीं तुम्हें मेरी किसी बात का बुरा न लग जाये। इसलिए मैं कभी तुम से बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मैं भौंचक्की सी उसकी बात सुन रही हूँ। यकीन नहीं हो रहा है मुझे, कि वो साया जिससे अब तक भागती फिर रही थी मैं, उसके इतना करीब थी कभी।

आगे जानने कि उत्सुकता में मैंने पूछा फिर क्या हुआ। वह हँसकर बोला होना क्या था निशा, मुझे हर पल यही लगता था कि तुम इतनी खूबसूरत हो, तो तुम्हें अपनी खूबसूरती पर बेहद घमंड होगा। तुम मुझसे भला बात क्यूं करोगी। मैं तो दिखने में भी कोई खास आकर्षित व्यक्ति नहीं था। फिर भला तुम मुझे भाव क्यूं दोगी। और यदि कभी मैंने चेष्टा भी की तुम से बात करने कि या तुम्हारे करीब आने की तो तुम मुझे दुत्कार कर कहोगी, मैं तुम्हें नहीं जानती। तुम कौन हो बे...बिला वजह खामखा...इसी डर ने मुझे कभी आगे नहीं बढ़ने दिया।

ओ अच्छा....तो अब मैं समझी तुम उस बात का बदला मुझे यूँ डरा डरा कर लेना चाहते थे। इतना ही भावनात्मक रूप से जुड़े थे मुझसे, तो मेरे सामने क्यूं नहीं आते। सामने ! कैसे आऊँ मैं तुम्हारे सामने। तुम हुस्न परी हो और मैं काला कलूटा बैंगन लूटा। मैं तब तुम्हारे सामने नहीं आ पाया प्रिये, तो अब कैसे आऊँ। तुम्हें पता है, मुझे ना तब तुम्हें देखकर ऐसा लगता था कि तुम तो शादी लायक लड़की हो। अगर मैं शादी करना चाहूँगा तो मुझे तुम जैसी लड़की ही चाहिए होगी।

अच्छा...? तो तुम आकर मिले क्यूं नहीं मुझसे...और यदि तब नहीं मिल सके। तो अब क्यूं पीछा कर रहे हो मेरा...? अब तो मैं मिल चुका हूँ ना तुमसे, तो अब कैसा डर। लेकिन तब ऐसा लगता था कि मैं तुम्हारे बारे में जो सोच रहा हूँ, वह गलत है। एक तरह का पाप है। हालांकि मैं पाप पुण्य नहीं मानता। तो पाप तो नहीं कहूँगा मैं उसे, पर हाँ गलत जरूर है। इसलिए मैं हमेशा अपने दिमाग को यह निर्देश दिया करता था कि नहीं इस लड़की के विषय में मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए।

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